एका

बाहर जगमगाहट है
दिलों में है अंधेरा

ये जो पृचंण माम की विभिषीका हौ
न जाने कब थमेगा

मझे समझने को शब्दों की होङ क्यों
ईशारे पड गऐ कम ईरादों में जोड क्यों

शब्दों से विहीन किये, छीन लोगे सोच भी कया
छीन ली या छीनी ना, नुकसान मेरा होगा कया

मैं निष्पाप निष्काम हूं नज़रो मे मेरी
नज़रो मे तेरी कुछ कम था कया

तो सोच मत, उठा धनुष और साध तीर
लगे अलग जो खुदा को तेरे तो चड़ा दे सूली

मैं फिरसे आउंगा और तेरे दल मे मिल जाउंगा
मेरा विशवास परमेशवर पे है भाषा पे नही

सवाल फिर भी उठांउगा क्योंकी पृशनचिंह तो हर भाषा मे हैं
अब तू सोच की उंहे ठहराऐगा सही या ठहराऐगा गलती



©️ नकुल चतुर्वेदी, 9 मई 2020

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