कुछ और ही

मुझे ज़िन्दगी से कुछ चाहिए था, ज़िन्दगी को मुझसे कुछ और 
मैंने ताक पे सब रख हर बार दिल की सुनी, दिल ने हर बार कहा कुछ और

बड़ी तेज़ी से मैंने सब्र की हर रात चुनी, सेहेर को बेताबी थी कुछ और
मेरे तो अल्फ़ाज़ों तक ने साथ न दिया, कमबख्तों ने माइने बने कुछ और

किरदार को अपने ढ़ाला मुत'अद्दिद (several) रंगों में, गदार को ज़िन्दगी से चाहिए था कुछ और
सुन सुन के लोगों की मै सुन ना सका, जब तुमने मुझसे कहा कुछ और

तुमने क्यों न सुना जो मैं कह न सका, क़ुव्वत-ए-फ़िक्र न गिला तुमसे है कुछ और

मोहोब्बत कम कर न सका, ग़ैर-जानिबदार (impartial) बन ना सका

पन्नो पे पन्ने भरता रहा, रम्ज़-ओ-ईमा (riddle and hint) तक कर ना सका

तू होता तो ज़िन्दगी के माइने होते कुछ और, 
हैं अभी भी पर हैं कुछ और

तू होता तो ज़िंदगानी होती कुछ और







©️ नकुल चतुर्वेदी, June 18, 2021 

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